इक पंछी बन जाऊं


चाह यही ,इक पंछी बन जाऊं,
और पिंजरे को, खोल के उड़ जाऊं।

खुले आसमां, देखूं दुनिया,
डाल डाल पर झूम जाऊं।

कैद हो पिंजरे में ,मायूसी आये ,
कहते पंख, पंछी बन उड़ जाऊं।

दाना है, पानी है, इस पिंजरे में,
व्यथित मन से, आजादी कैसे पाऊं।

मैं बगिया की एक ,उन्मुक्त चिड़िया,
बेपरवाह, सपनों की सदा उड़ान भरूँ ।


--गीता सिंह 

 खुर्जा, उत्तर प्रदेश 

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