एकांत, सुख या दुःख

 
कहा गया है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समूह में रहना पसंद करता है। परंतु एकांत में मोक्ष की प्राप्ति भी उतनी ही सत्य है जितनी की सामाजिकता।
                   मन तो हमारा यही करता है कि कोई साथ हो, कोई गुरु, कोई मित्र तथा कोई सहयोगी। एकांत में रहने की हमारी इच्छा नहीं होती। परंतु जब मनुष्य एकांतवास करता है तो उसे धैर्य रखना चाहिए, न कि अवसादों से ग्रसित होकर स्वयं को मृत्यु की ओर ले जाना चाहिए।
                                     कई बार मनुष्य के जीवन में ऐसा समय भी आता है जब वह शारीरिक व्याधि या मानसिक तनाव से ग्रसित हो जाता है। ऐसे समय में एकांत ही है इसका समाधान।
                                  एकांतवास में मनुष्य को बाह्य सुखों को त्याग कर स्वयं के अंतर्मन में नई उर्जा की अनुभूति करनी चाहिए। एकांत में स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार होता है। एकांत मनुष्य की बिखरी हुई अंतः करण की शक्तियों को नई उर्जा प्रदान करके, एकाग्रता प्रदान करता है।
           प्रत्येक मनुष्य को एकांत दुख नहीं, सुख समझना चाहिए। एकांत हमें आध्यात्मिकता की ओर ले जाता है। एकांत में ही आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार होता है। पांचो इंद्रियां, जो मनुष्य को भौतिकता के दलदल में धकेलती है, एकांत इन इंद्रियों की तृष्णा को समाप्त कर देता है। मनुष्य अंतर्मुखी हो जाता है और यही वृत्ति साधना के मार्ग को प्रशस्त करती है।
                  बाह्य जगत के भौतिक विषयों का आकर्षण बड़ा प्रबल होता है। यह एकाग्रता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। हृदय में उठने वाले तामसिक विचारों को एकांतवास शांत कर देता है।
                                     चिंतन, प्रतिभा एवं नवसृजन का मार्ग एकांतवास से ही खुलता है। जब कोई व्यक्ति नितांत अकेला हो जाता है तो प्रकृति की सारी शुभ शक्तियां उसका साथ देने को आतुर हो जाती हैं। तो एकांत में रहते हुए स्वयं को मानसिक व शारीरिक सक्षम बनाओ। मानसिक और आत्मिक रूप से सक्षम मनुष्य ही इस संसार में सफलता प्राप्त करता है। अतः यह कहना उचित होगा कि एकांत अध्यात्म का मार्ग है ना कि दुखों का।

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